भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साँसों की हड़ताल / रणजीत

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:56, 9 जुलाई 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रणजीत |अनुवादक= |संग्रह=कविता-समग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भाई मेरे!
ऊपर ऊपर से तुम मुझे कोस लो चाहे जितना
कह लो
मैं प्रचार की घुट्टी देता हूँ लोगों को
कविता की शक्कर से मढ़कर
और कि मेरी कविताओं में
उच्च कला के दर्शन कभी नहीं होते हैं
पर भीतर ही भीतर तुम भी सोच रहे हो
आखिर क्या कारण जो मेरी,
क़लम नहीं रुकती है थक कर
क्यों मेरा दम नहीं टूटता कदम-कदम पर
और न क्यों मैं कभी तुम्हारी तरह यही कहता हूँ:
जो भीतर था सब कहा जा चुका
नहीं रहा अब कुछ भी मेरे पास किसी से कहने को
कुछ लक्ष्य नहीं है जिस पर मैं प्रत्यंचा खींचूँ
अब कोई गहरा दर्द नहीं है सहने को।
हाँ, मेरा भी हाल किसी दिन ऐसा ही था
जबकि ज़िंदगी की मिल बंद हुई थी
साँसों के मज़दूर बग़ावत पर उतरे थे
कर दी थी हड़ताल
क़लम का करघा थक निस्पंद हुआ था
काम छोड़ बैठा था मेरे भी विवेक का धुनिया
अंधे आवेगों की आँधी में अनधुनी रुई भावों की
उड़ने लगी अवश थी
टूट टूट कर बिखर रहे थे तार सभी शब्दों के
और रुका था
कविता के कपड़े का मेरा भी उत्पादन
क्योंकि प्यार-पूँजी पर कुण्डल मारे
अहम् का मालिक बैठा था
किसी बड़े बूढ़े अजगर सा
और साँस के मज़दूरों का यह नोटिस था:
जब तक मिल का लाभ नहीं बाँटा जाएगा सब में
जब तक हर कमकर को बोनस नहीं मिलेगा पूरा-पूरा
नहीं चलेगी तब तक यह मिल
चक्का जाम रहेगा।

कोशिश की मैंने भी
कुछ गद्दार इंटकी साँसों को तैयार किया था
और तरक्की के लालच की रिश्वत देकर
उन्हें काम पर बुला लिया था
धरने पर बैठी साँसों को चीर, कुचल पहुँचीं वे भीतर
लेकिन मिल का काम नहीं चल पाया
फूट नहीं पाए ज्यादा मजदूर
कि उनका एका बहुत कड़ा था।

हाँ, कुछ हरक़त हुई प्राण के पहियों में
कुछ तार जुड़े: आड़े या तिरछे
कुछ में गाँठे लगीं
और कुछ टूटे ही बिन गए छंद-लय के ताने-बाने में
बना सिर्फ़ दो चार हाथ पर
कटा-फटा कविता का कपड़ा
घटी माँग झट
जनता के बाज़ार में एकदम भाव गिर गए
और तुम्हारी तरह मेरा भी
लिखने का व्यापार ठप्प होने को आया
तब यह चिंता हुई कि कैसे बिक पाएगा
टूटे-बिखरे
ऊँचे-नीचे
उलझे-उलझे तारों वाली
विघटन वाली
पस्ती वाली
हारों वाली
तनहाई के तेज़ाबों से जली हुई
बेजान हुई कविता का कपड़ा
जो कि किसी के काम नहीं आता है
उन ठालों के सिवा
वक़्त ज़ाया करने जो
उसे ध्यान से देख-देख सोचा करते हैं:
यह जो तार गिरा है टेढ़ा, इसका क्या मतलब है?
और यहाँ जो टूट गया है, इससे कैसा भाव प्रकट होता है?
कौन गहन अनुभूति हुई अभिव्यक्त यहाँ पर
जहाँ तार मोटा आया है!
कब तक ऐसे खरीदार मिलने पाएँगे
कब तक चल पाएगा इसका भी उत्पादन
संघ-द्रोहिणी इनी-गिनी साँसों के बल पर
यही सोच कर मैंने, भाई मेरे!
कर ली हैं मंजूर सभी माँगें साँसों की
और अहम् को
मालिक की गद्दी से उतार कर
साँसों के प्रतिनिधियों को सत्ता सौंपी है
तभी निकल पाता है भाई
इस करघे से
ऐसा कपड़ा
घोर निराशा की जो बर्फ़ानी सर्दी में
और जुल्म की तपती हुई धूप में
लोगों को राहत देता है
उपयोगी है!