भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जमती बर्फ: खौलता लोहू / रणजीत

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:58, 9 जुलाई 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रणजीत |अनुवादक= |संग्रह=कविता-समग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जमती बर्फ़!
मेरी पलकों पर बिछे हुए
सपनों के ताने-बाने पर छाना
उन्हें मिटाना चाह रही हैं
साँस साँस से उमग रही आवाज़ दबाना चाह रही हैं
मेरी रग-रग में जो बहता हुआ ख़ून है
उसे जमाना चाह रही हैं
उसमें पलती आग बुझाना चाह रही हैं
जमती बर्फ़!
खौलता लोहू!

तरल तरंगित
जीवन के रंगों से रंगित
हर कल को जो
हर वर्तमान से
आगे ले चलने के संघर्षों में जूझ रहा है
जीवन की हरियाली पर आ बिछने को तैयार खड़ी
मनहूस मौत की परतों से लड़ जाना
उनको पिघलाना चाह रहा है
खौलता लोहू!

जमती बर्फ़!
खौलता लोहू!
दोनों में संघर्ष छिड़ा है
समझौते की, स्थिरता की, पस्ती की सभी ताक़तें
एक ओर हैं
लड़ने की, बढ़ने की, हस्ती की सभी ताक़तें
ओर दूसरी
खड़ी हुई हैं
अड़ी हुई हैं
जमती बर्फ़!
खौलता लोहू!

मेरी सपनीली पलकों पर लेकिन
मेरे स्वप्न नहीं हैं केवल
बहुजन की बेनींद पलक पर आज यही सपने छाए हैं,
मेरी राग-भरी साँसों में लेकिन
मेरे राग नहीं हैं केवल
बहुजन के हर रुँधे कंठ से यही राग उठकर आए हैं
मेरी लोहू-भरी रगों में लेकिन
मेरा ख़ून नहीं है केवल
बहुजन की हर ठंडी रग ने इसी ख़ून को गरमाया है,
मेरे आग-भरे अन्तस में लेकिन
मेरी आग नहीं है केवल
जन-जन के हर तपे हृदय ने
इसी आग को सुलगाया है!

जमती बर्फ़!
मेरे स्वप्न मिटा सकती है
मेरे राग दबा सकती है
मेरा ख़ून जमा सकती है
मेरी आग बुझा सकती है; लेकिन
सबके स्वप्न नहीं मिट सकते
सबके राग नहीं दब सकते
सबका ख़ून नहीं जम सकता
सबकी आग नहीं बुझ सकती
जीवन की, गति की, जीतों की ताक़त
जड़ता की, यति और पराजय की ताक़त से
सदा बड़ी है!
सदा बढ़ी है!