Last modified on 9 जुलाई 2023, at 23:37

नियमित नहीं है / नवीन दवे मनावत

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:37, 9 जुलाई 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नवीन दवे मनावत |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वह नदी जिसने देखे होंगे कई युग
थपथपाये होंगे असंख्य पत्थरों को
तृप्त किया होगा अनगिनत पेड़ों को
कितनी बार बनी होगी
सूर्य का अर्घ्य
और
कितनी बार बनी होगी चरणामृत
दिव्य आत्माओं की
पर आज भी विचलित नहीं है!
बहती है अनवरत
मद रहित होकर
देख रही युगों से
टूटे-बिखरें मानव को!

वह समुद्र
जो कई युगों का साक्षी रहा
उसकी मौन साधना पर!
असंख्य सूर्य प्रतिबिंब बने होगे
अनगिनत लहरों ने
किया होगा आंदोलन
कितनी बार ढोया होगा
अनगिनत मानवो को
और
स्वयं खारा बना रहा पर
कितनी बार सहर्ष पहुँचाया होगा
बादलों को अमृतजल
पर आज भी विचलित नहीं है
प्रफुल्लित हो उमड़ रहा है
देख रहा है
मानव की अधीरता को!

यह धरती
असंख्य युगों से कर रही है
परिक्रमण विशाल ब्रह्मांड में
कितने ही उल्कापींड
समीप से गुजरते
पर रहती अडिग अपने कर्तव्य में
कितनी ही मानव सभ्यताओं को
बनते बिगड़ते देखा होगा
पर उदास नहीं है
बल्कि आगाज करती है
नवीन सभ्यताओं का!

एक मानव
जिसकी पीढ़ियाँ
साक्षी रही है
नदी, समुद्र, पृथ्वी के
कर्तव्य और समर्पण की
तो आज विचलित क्यों है?
क्योंकि हम
इनके समान नियमित नहीं है!