भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सच की कविता / नवीन दवे मनावत

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:38, 9 जुलाई 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नवीन दवे मनावत |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी मेज़ पर पडें काग़ज़ों के बीच
वह कलम
जिससे लिखी जा रही थी
एक कविता
वह अचानक गिर पड़ी
पर आवाज नहीं आई!
उसके गिरने पर नहीं थी
काग़ज़ों में कोई हलचल!
केवल मौन होकर
देख रहे थे कलम के गिरने की तरकीब को
कि कितनी तड़पती है
टूटने पर उसकी रूह!
और कैसी बनावट के उभरते है
शब्द?

कलम के गिरने की आवाज़ को
मैं भी महसूस नहीं कर सका!
ताकि संभल सकु
और उठा कर रख सकु
उन्ही काग़ज़ों पर
जिसमे लिखा जा रहा था
सदी का सबसे भयानक यथार्थ!
और गढे़ जा रहे थे संवेदना के शब्द!

मैं कलम को खोज में
लग गया
तभी एक हादसा हुआ!
मैं गिर पड़ा धडाम से
एकाएक वह कलम मेरे पैर के नीचे दबकर
हो गई क्षत-विक्षत!
और मेरे देह पर हो गए
स्याहीं के निशान!
जिसमे बनी हुई थी
भिन्न-भिन्न आकृतियाँ
कही रक्त सी, कही स्याह-सी
तो कही नीली-उजली
जो कहना चाहती थी
हमे रहने दो उसी कलम में
ताकि लिख सके कोई सच की कविता