भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इस दौर ए ग़म-ए-कुलफ़त-ए-ग़ुरबत में करूँ क्या / शिवांश पाराशर
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:17, 11 जुलाई 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिवांश पाराशर |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
इस दौर ए ग़म-ए-कुलफ़त-ए-ग़ुरबत में करूँ क्या,
क्या मसखरा बन जाऊँ मैं बेवजह हँसूँ क्या
भीगी न सितमगर की पलक नालों से मेरे,
इकराह–ए–दिली में हुआ बरबाद ये खूँ क्या
तू एक ग़िज़ाल ऐसा कि हाथ आता नहीं है,
तस्वीर लुभाती है तेरी चूम ही लूँ क्या
आमाल मेरे अब मुझे जीने नहीं देते,
दुनिया में बसर के लिए दुनिया-सा बनूँ क्या
मदहोशी-ओ-मस्ती-ए-शराब उनमें है पिन्हाँ,
बस देखा करूँ हैं तेरी आँखें या फ़ुसूँ क्या
क्यों लिपटी हैं शाखों से सभी कलियाँ सहम कर,
गुलशन में तेरे फिर से हुई आमद-ए-दूँ क्या
बेशक नहीं "राही" है किसी किस्से में शामिल,
हाँ याद मगर आता है तो इसमें भी क्यूँ क्या