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ग्रामीण औरतें / अनीता सैनी

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ये कागद की लुगदी से
मटके पर नहीं गढ़ी जाती
और न ही
मिट्टी के लोथड़े-सी चाक पर
चलाई जाती हैं।

माताएँ होती हैं इनकी
ये ख़ुद भी माताएँ होती हैं किसी की
इनके भी परिवार होते हैं
परिवार की मुखिया होती हैं ये भी ।

सुरक्षा की बाड़ इनके आँगन में भी होती है
सूरज पूर्व से पश्चिम में इनके लिए भी डूबता है
रात गोद में लेकर सुलाती
भोर माथा चूमकर इनको भी जगाती है।

गाती-गुनगुनाती प्रेम-विरह के गीत
पगडंडियों पर डग भरना इन्हें भी आता है।
काजल लगाकर शर्मातीं
स्वयं की बलाएँ लेती हैं ये भी ।

भावनाओं का ज्वार इनमें भी दौड़ता है
ये भी स्वाभिमान के लिए लड़ती हैं।
काया के साथ थकती सांसें
उम्र के पड़ाव इन्हें भी सताते हैं।

छोटी-सी झोंपड़ी में
 चमेली के तेल से महकता दीपक
 सपने पूरे होने के इंतज़ार में
इनकी भी चौखट से झाँकता है।

सावन-भादों इनके लिए भी बरसते हैं।
ये भी धरती के जैसे सजती-सँवरती हैं
चाँद-तारों की उपमाएँ इन्हें भी दी जाती हैं।
प्रेमी होते हैं इनके भी, ये भी प्रेम में होती हैं।