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भूख / निकोलस गियेन / सुरेश सलिल

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यह भूख है ।
सिर्फ़ दाँत — सिर्फ़ आँख ।
एक बैठक में यह परितृप्त नहीं होती,
कोई बहका नहीं सकता इसे
अनदेखी नहीं कर सकता इसकी ।
एक बार के दोपहर के भोजन या रात के ब्यालू से
          यह सन्तुष्ट नहीं होती ।

हरदम ख़ूँख़ार तरीके से पेश आती है :
बाघ की तरह दहाड़ती है, अजगर की तरह चापती है
व्यक्ति की तरह सोचती है ।

यहाँ प्रदर्शित नमूना भारत में (मुम्बई की झोपड़पट्टी में)
          हथियाया गया था
हालाँकि कम या ज़्यादा हिंस्र रूप में
यह कई और जगहों में पाई जाती है ।

इससे दूरी बरतो !

1967

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल