जी लूँ / अमीता परसुराम मीता
कभी लगता है के
बुझती सी जा रही हूँ
जीते जीते
कुछ बचे खुचे रिश्ते निभा रही हूँ
करमों की जीस्त पे किश्तें बाक़ी हैं
शायद
वही चुका रही हूँ
और अब ये आलम है आगही का
के मुझको मालूम है
मेरी ज़िंदगी के फ़ैसले मेरे नहीं
हाँ मैं अब जान चुकी हूँ
और मैं अब मान चुकी हूँ
के
मेरा माज़ी न हाल-मुस्तक़बिल
नहीं किसी पर भी इख़्तियार मुझको
क्या यही सच है मेरे होने का ?
और अगर यही सच है
तो फिर ...
रिश्ते क्यों ?
मलाल क्यों ?
ज़िंदगी का जश्न क्यों ?
मौत पर सवाल क्यों ?
क्या सच है मेरी ज़िन्दगी का ?
क्या इख़्तियार है मेरा ज़िंदगी पर?
शायद ...सिर्फ़ इतना ही
के जी लूँ ....
वो ख़ुशियाँ वो ग़म
वो नेमतें वो अलम
जो नसीब में हैं
जी लूँ...
सुरों की रानाईयाँ
दर्द भरी मुस्कान
रिश्तों की भीड़ में
अपनी इक पहचान
जी लूँ वो ज़िंदगी ...
जो अमानत है उसी की
जी लूँ वो ख़ुशियाँ ...
जो इनायत हैं उसी की
जी लूँ कुछ इस तरह...
के जब मैं हूँ न मेरा वुजूद है
तो कोई ये न कह सके...
....के मैं...
सिर्फ़ ज़िंदा थी....!