भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात - 2 / दोपदी सिंघार / अम्बर रंजना पाण्डेय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:17, 11 अगस्त 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दोपदी सिंघार |अनुवादक=अम्बर रंजन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कनस्तर में आधा किलो आटा था
फैला दिया
साब दो टेम की मेरी रोटी थी
आटे में बारूद छुपाई है
क्या कहते हो
बारूद आटे में नहीं हम
माथे में छुपाते है - लोहा हड्डियों में

हमें भी यह धरती प्यारी है
हमें भी धान प्यारा है
नरमदा हमारी भी मैया है

मटका लात मारी फोड़ दिया
तमंचा पानी में कौन छुपाता है
मंदिर के कुएँ से लाई
पंडितजी एक टेम ही भरने देते है

गोदड़ियाँ फाड़ दी रेडीओ फेंक दिया

जब कुछ न मिला तो
फोड़ दिया आदमी का सर

तूने खून छिपाया है तूने आग छिपायी है
तूने प्रेम तूने जीने की आस छुपाई है
तूने सरकार गिराने का पिलान छिपाया है

बहता रहा खून देर तक
उन्होंने पानी पिया उन्होंने हँसी उड़ाई
हमने लौकी अकेली उबाल में खाई
ऐसे रात बिताई ।