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खानाबदोश / राकेश कुमार पटेल
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सरकारी मुलाज़िम हूँ
ख़ानाबदोश हूँ पेशे से
एक दर्द लिये फिरता हूँ
इस शहर से उस शहर तक
बाँधे रोज़मर्रा की ज़रूरतें
मोह रख लेता हूँ
चंद दिनों के आशियानों से
और बेशक तेरे शहर से भी
फिर आता है फ़रमान निज़ाम का
और समेट लेता हूँ खुद को
चल देता हूँ अगले सफ़र पे
पर रह जाती हैं बेशुमार यादें
जो खुलती रहती हैं परत-दर-परत
यह मुसलसल ख़ानाबदोश सफ़र
ये आशियाने, ये शहर-दर-शहर
मोह का पुलिंदा घना होता जाता है
और मैं अमीर होता जाता हूँ।