रातरानी कहो या कहो चाँदनी
शीश से पाँव तक गीत ही गीत हूँ ।
बाँसुरी की तरह तुम पुकारो मुझे
एक पागल ह्रदय की विकल प्रीत हूँ ।
तुम किसी तौर पर ही निभा लो मुझे
तो लगेगा तुम्हें जीत ही जीत हूँ ।
जो सुवासित करे रोम से प्राण तक
पर्वतों में पली चन्दनी गन्ध हूँ ।
जिसकी अनुगूँज है आज हर कण्ठ में
गीत-गोविन्द का मैं वही छन्द हूँ ।
नेह के भाव में राग-अनुराग में
सात सुर में बँधा एक संगीत हूँ ।
एक आकुल प्रतीक्षा किसी फूल की
हाथ पकड़े पवन को बुलाती रह ।
शोख सूरज किरन चम्पई रंग से
एड़ियों पर महावर लगाती रही ।
प्राण जिसको सहेजे हुए आजतक
लोक व्यवहार की अनकही रीत हूँ ।
वन्दना के स्वरों से सजा लो मुझे
मैं पिघलती हुई टूटती सांस हूँ ।
युग-युगों से बसी है किसी नेह सी
मैं तुम्हारे नयन की वही प्यास हूँ ।
खो दिया था जिसे तुमने मझधार में
तुमसे बिछुड़ी हुई मैं वही मीत हूँ ।