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कलम फिर गही गई न हाथ / कल्पना पंत

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मेरी कविताओं ने मुझे छोड़ दिया है अचानक
मैंने पूछा तो कविताओं ने कहा
"शब्दों के लच्छे बुन-बुन कर
भावातिरेक को भर-भर कर
सुबह सांझ जो लिख पाती हो
उसका क्या दशमांश भी
क्रिया रूप में कर पाती हो?
गंभीर प्रश्न था
मुझ पर सवाल था
मन में बबाल था
मैंने खुद से खुद को पूछा
उत्तर एक था नहीं था दूजा
मुक्तिबोध की कविता आई
अब तक क्या किया जीवन क्या जिया?
मर गया देश अरे जीवित रह गए तुम!
मैं चुप अवाक्
कलम फिर गही गई न हाथ