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कविता - गोष्ठी / रामकुमार कृषक

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एक
 
उसने कविता पढ़ी
और सुनता रहा
उसने कविता सुनी
और पढ़ता रहा

बातचीत हुई / और
महान हो गईं काव्य - चिन्ताएँ
समूचे समाज पर छा गए
कविता के सरोकार

अच्छा लगता है मुझे भी
बुद्धू की तरह बैठे रहना / और
उठ खड़े होना बुद्ध की तरह !

दो

कुछ तो है ऐसा
जो कल नहीं था कविता में

मसलन
समझ में न आना
बना देना वातावरण मातमी
दिखाई न देना कविता चेहरे पर
न उतर पाना श्रोता का उसके आवेग में

महत्वपूर्ण है यह
कहा जाना चाहिए इसे
रेखांकित किया जाना
कि अधिक गम्भीर हो गई है कविता
सोचने लगी है समाज के बारे में
चिल्ल-पौं नहीं मचाती अब
बाज के पंजों में दबी चिड़िया की तरह
परवाज़ करती है उसी ऊँचाई पर
जिस पर बाज़
अधिक शान्त है इन दिनों
चिन्तन करती हुई
हमलावर की गिरफ़्त में

देख रही है फिर भी लगातार
धरती की ओर
बता रही है हमें
उबरना चाहते हो गर्त से
तो ऊँचाई तक उठो
ऊँचाई तक कविता की
नाज़ुक है, बारीक
कच्चा धागा है कविता
उठो पकड़ो और झूल जाओ
कोशिश करो ऊपर उठने की

देखो टूट न जाए
नाज़ुक है , बारीक़
ज़रूरी है नाज़ुकी और बारीक़ी
फिर भी उठो पकड़ो और झूल जाओ
वरना बुरा नहीं है गर्त
पर्याय है गहराई का
कहा जाना चाहिए इसे
महत्वपूर्ण है यह भी !