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बदल दो जीवन / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन
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इस ओर आर० एस० एस०,
जमात या हूजी उस ओर
मुक्ति खोजूँ कहाँ, कहाँ, कहाँ, किस ठौर?
हिंसक अन्धकार युग, मानवता आज है आहत
मानव – तुम्हारे मान और बोध के शरणागत
होना है आज हमें,
लौटा दो मानवताबोध
लौटा दो प्रेम,
लौटा दो दीप्त प्रतिरोध।
ध्वंस की कैसी लीला !
कट्टरता के शिकार हैं हम
मरते हैं भाई-बहन हमारे,
मरते माता-पिता हरदम
बदला नहीं है लेना,
बदल दो जीवन का भाग
लाश नहीं,
पलाश से भर उठे प्रेम का बाग।
मूल बांगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी