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वर्षा-दिवस / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन

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देखो, आज इतने दिनों बाद
घिरे हैं ऐसे बादल
मतवाली हवा बही
मिट्टी के भीतर से कूदकर बाहर आई है
सौंधी-सी गन्ध

फिर भी तुम्हें क्यों नहीं आई मेरी याद ?

यह जो शुरू हुई है बारिश
यह जो पश्चिम का मैदान धुँधुआ रहा है
पानी की बौछार से
आसमान को कँपाती हुई गिरी बिजली
तुम शायद अब भी नहीं समझे
किसलिए है ये आयोजन !

देखो, बारिश तेज़ हो चली है
अभी हाँक लगाएगी बाढ़
शोना ! मैं भी अगर थोड़ा और कष्ट पा सकूँ
और और और थोड़ा-सा भय ...

इतने दिनों में, इतने दिनों में
तुम्हें ज़रूर मेरी याद आ जाएगी ...

मूल बांगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी