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हमारा समाज / वीरेन डंगवाल

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यह कौन नहीं चाहेगा उसको मिले प्यार
यह कौन नहीं चाहेगा भोजन-वस्त्र मिले
यह कौन न सोचेगा हो छत सर के ऊपर
बीमार पड़े तो हो इलाज थोड़ा ढब से

बेटे-बेटी को मिले ठिकाना दुनिया में
कुछ इज्ज़त हो, कुछ मान बढ़े फल-फूल जाएँ
गाड़ी में बैठें, जगह मिले, डर भी न लगे
यदि दफ़्तर में भी जाएँ किसी, तो न घबराए ?
अनजानों से घुल-मिल भी मन में न पछताएँ ।

कुछ चिन्ता भी हो, हाँ, कोई हरज नहीं
पर ऐसी नहीं कि मन उनमें ही गले घुने
हौसला दिलाने और बरजने आसपास
हो संगी-साथी, अपने प्यारे, ख़ूब धने ।

पापड़-चटनी, आँचा-पाँचा, हल्ला-गुल्ला
दो चार जशन भी कभी-कभी कुछ धूम-धाएँ
जितना सम्भव हो देख सके, इस धरती को
हो सके जहाँ तक, उतनी दुनिया घूम आएँ

यह कौन नहीं चाहेगा ?

पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है ?
इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है ।

वह क़त्ल हो रहा, सरेशाम चौराहे पर
निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है

किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है ।
जिसमें, बस, वही दमकता है, जो काला है ?

मोटर सफ़ेद वह काली है
वे गाल गुलाबी काले हैं
चिन्ताकुल, चेहरा बुद्धिमान
पोथे कानूनी काले हैं
आटे की थैली काली है ।
हर सांस विषैली काली है
छत्ता है काली बर्रों का
वह भव्य इमारत काली है ।

कालेपन की वे सन्तानें
हैं बिछा रहीं जिन काली इच्छाओं की बिसात
व अपने कालेपन से हमको घेर रहीं
अपना काला जादू है हम पर फेर रही
बोलो तो, कुछ करना भी है ।
या काला शरबत पीते-पीते मरना है ?