भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये दिन भी जाएगा गुज़र / प्रदीप शर्मा
Kavita Kosh से
Firstbot (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:30, 2 अक्टूबर 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप शर्मा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ये दिन भी जायेंगे गुज़र
आयेंगी खुशियां लहराकर
भर देंगी जीवन, धीरज धर।
ये दिन भी जायेंगे गुज़र।
कहती है हमें शबनम
कब रात रही हरदम
ऐ दिल न मचल
तू ज़रा सम्भल
धड़कन न बढ़ा
कुछ देर तो थम
अभी होती ही है उजली सहर।
ये दिन भी जायेंगे गुज़र।
कहता है नदी का जल
मेरी राह नहीं है सरल
मैं गगन से गिरा
पर्वतों से घिरा
बहता ही रहा हूं
मैं हरदम
अब आयेगा नीला सागर।
ये दिन भी जायेंगे गुज़र।