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तुम्हे पुकारते हुए / सुदीप बनर्जी
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तुम्हें पुकारते हुए
सुधरा नहीं जीवन
कुछ कम नहीं हुआ
रोज़ाना का विलाप
नहीं ही सध पाया
चुपचाप शान्त मन
हाहाकार क़ाबिज़ रहा
लोगों में, अकेले में
किसे पुकारें अब आर्त्त होकर
कहाँ जाएँ इतने बड़े वतन में
इस रोज़मर्रा का मारा ईश्वर
अब दम तक नहीं लेता
अपनी किसी रहगुज़र में ।
रचनाकाल : 1993