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इतना सब कुछ करने को / सुदीप बनर्जी

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इतना सब-कुछ करने को
इतने सपने साकार
फिर भी यह कैसा खौफ़
अंदर को बाहर फेंकता हुआ

बीवी-बच्चों से प्यार
पड़ोसियों से भी नहीं परहेज़
सारी दुनिया पर एतबार

फिर भी अभय नहीं देता यह सब-कुछ
कहीं और कहीं और जाने का मन
बिलावज़ह की यह बेचैनी
अंदर को बाहर फेंकता हुआ समय ।


रचनाकाल : 1991