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वृद्धाश्रम एक कलंक / भावना जितेन्द्र ठाकर

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सिसकती है कई जिंदगियाँ उस दोज़ख के भीतर
एक गुमनाम-सी उम्र ढोते,
सुलगती है ममता और वात्सल्य पिता का ज़ार-ज़ार रोते।

मन को झकझोरने वाले दृश्य पनपते हैं
कलयुग के कारीगरों की करतूतों को उजागर करते,
वृद्धों की आँखों से पश्चाताप छलकता है
असुरों को पैदा करने की सज़ा पाते।

उस जननी के ख़्वाबगाह से बहते
अश्कों की भयावह गाथा कोई क्या जानें,
जन्म दिया जिसे वही छोड़ गया वृद्धाश्रम की चौखट के पीछे।

खून से सिंचा जिस औलाद को अपने शौक़ परे रखकर,
सपने जिनके पूरे किए
उसी ने कलंकित किया माता-पिता के मासूम हृदय को।

नहीं पहुँच पाते ईश्वर हर जगह इसलिए माँ को
अपना रूप देकर बच्चों को पनाह में लेते,
वही बच्चें बड़े होकर माँ के आँचल को दागदार करते है।

देने जाओ जब दान तो नज़रें झुका लेते है,
एक दिन खुद दान देने वाले हाथ फ़ैलाए
नतमस्तक अपनी हालत पर शर्मिंदा होते रो देते है।

एक बार तो झाँको वृद्धों की आँखों में
बेबसी का समुन्दर बहता रहता है,
बच्चों पर सबकुछ लूटाने वाले खुद लूटा हुआ महसूस करते है।

तो क्या हुआ की बच्चें पत्थर दिल होते है
माँ-बाप तो वृद्धाश्रम की दहलीज़ पर
बैठे भी औलाद को आशीष पल-पल देते है।

वृद्धाश्रम भेजकर माँ-बाप को नहीं,
ईश्वर को ख़फ़ा करते हो,
अपने बच्चों के आगे अपना कालिख पोता चरित्र पेश करते हो।