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न जलती नहीं / भावना जितेन्द्र ठाकर

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कल्पनाओं की टहनी पर बैठे
उन वामाओं की उम्र का आइना निहारती हूँ,
कैसे रंगीनियों से लबालब
दीवानियों की शामें गुज़रती होंगी।

शायद कोई सौदा होता होगा
उपरवाले से वनिताओं का,
तभी तो हर सुख की परछाई
अपने नाम लिखवाकर धरती पर जन्म लेती होंगी।

दिनरथ का घोड़ा बन दौड़ती नहीं होंगी वह,
जो बिस्तर पर बैठे हुकूम छोड़ती होगी,
देह की परतों से उनकी मरी मसालों के बदले इत्र,
परफ़्यूम की महकें उठती होंगी।

न कमर में पल्लू खोंसनें की झंझट,
न दुपट्टों में लिपटी होंगी,
बैकलेस और स्लिवलैस में आज़ादी का
अमृत महोत्सव मना रही होंगी।

पिक्चर, पार्टी,
पिकनिक लकीरों में लिखवाकर आई होंगी
लहसुन छिलते,
भाजी चुनते देहरी पर बैठे गपशप तो न लड़ाती होंगी।

न जूड़ा, न चोटी,
न कबरी बाँधती होगी सलून में कटवाते,
खुल्ले केश बिखराते मानुनी मस्ती से इतराती होंगी

न गोबर, न चूल्हा,
न चक्की पिसती होंगी स्वीगी से ऑर्डर करते
मनभावन पकवान का लुत्फ़ उठाती होंगी।
 
न तानें न उल्हानों के तीर सहती होंगी,
सच में किस्मत की धनी होती होंगी
जो सरताजों के पैरों की जूती नहीं,
सर आँखों पर बैठे राज करती होंगी।

न जलती नहीं,
न ईर्ष्या की मारी आँखें नम करती हूँ,
मेरे पर्याय-सी मेरी अपनी बहनों की खुशियों की
ईश्वर से कामना करती हूँ।