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सन्ध्या-चित्र-6 / विजयदेव नारायण साही

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एक नीली चट्टान के कगार पर
प्रकट होता है एक फूलता हुआ बुलबुला
बारीक, बारीक, बिल्लौरी...

काँप-काँप कर तैर जाता है
अथाह शून्य में
और नीचे तल तक पहुँचने से पहले
विलीन हो जाता है :

शाम की लाली
डूबते हुए दिल की तरह इन्तज़ार करती है
दूसरी धड़कन का :
फिर एक दूसरा बुलबुला नीली चट्टान की कोर पर
थरथराता है
और तैर जाता है ।

मैं इस सन्तुलित कारागार के जंगलों से
हवा के स्पन्दन की तरह
निकल जाना चाहता हूँ :
लेकिन कहाँ? कहाँ?