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कुछ स्वप्न तुम्हारे नाम हुए / पीयूष शर्मा

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खुशियों का दर्पण चाहा था, यह वर्ष मगर प्रतिकूल रहा
कुछ स्वप्न टूट कर बिखर गए, कुछ स्वप्न तुम्हारे नाम हुए।

आशाओं की प्रतिमा चटकी, उर में पीड़ा का पहरा है
जिस पल में तुमको चाहा था, उस पल से जीवन ठहरा है
शबनम की बूंद रक्त बनकर, आ गिरी प्रेम के पौधे पर
सुंदरता की चंचलता पर, अंधियारा बिखरा-बिखरा है

तुम छोड़ चले, मुँह मोड़ चले, सुख-दुख का सूरज अस्त हुआ
कुछ प्रेम प्रश्न नाकाम हुए, कुछ प्रेम अर्थ बदनाम हुए।

कुछ फूलों में दुर्गंध बसी, पीड़ा उपजी मतवालों में
तुमको छूकर अनुराग जगा, तुम मिल न सके उजियालों में
भीगीं पलकें दृग मौन हुए, यह प्रेम देह वीरान हुई
मन मदिरा जैसा छलक गया, कुछ प्यासे उर के प्यालों में

तुम रूठ गए, स्वर टूट गए, सपनों का आंगन उजड़ गया
कुछ जीवन की गाथा उलझी, कुछ अनसुलझे परिणाम हुए।

उलझन, तड़पन, टूटन, सिसकन, दृग नम हैं प्रेम पनाहों में
शव जैसा यह तन मौन पड़ा, खुशियों की पावन राहों में
बादल रोए, नदियाँ सहमीं, दर्शन को नैना तरस गए
जबसे तुम छोड़ गए मुझको, आहों में और कराहों में

मैं हार गया, तुम जीत गए, मेरे मन के घट रीत गए
इच्छाओं के उपवन रोए, सब सपने दुख के धाम हुए।