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बवालात के दिन / राम सेंगर
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यही बिगड़ती बनी बात के दिन । यही पहुँच की शुरूआत के दिन ।
प्रभामण्डलों ने पृथ्वी को घेर ताना सूचीभेद्य घोर अन्धेर आदि - अन्त की संगति परम अटूट
यही पिघलती मोमरात के दिन ।
उलटबांसियाँ हल करने की होड़ कोशिश का हर रंग रहा बेजोड़ ज़िस्म तमन्ना दर्शकदीर्घा मंच
तजे उन्होंने संग - साथ के दिन ।
किरदारों के पीछे छिप कर रोज़ करते आए हम अपनी ही खोज आकाँक्षा के की महत्व की जाँच
यही स्वयं से मुलाक़ात के दिन ।
कथ्यरूप से कूड़ा करकट बीन कसी अक़ल के इस घोड़े पर जीन पथ पाथेय लक्ष्य ने पेरा ख़ूब
गुज़र गए सब बवालात के दिन । </poem>