भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूल भी कुम्हला रहे हैं / हरिवंश प्रभात

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:51, 7 नवम्बर 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंश प्रभात |अनुवादक= |संग्रह=छ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फूल भी कुम्हला रहे हैं शाख़ में।
रह गया अंगार दबकर राख में।

दिन दहाड़े अपहरण और लूट है,
मजहबी पुस्तक पड़ी है ताख में।

छोड़ती बीबी बहाने कर बहुत,
हैं बहुत दुर्गन्ध उसकी काँख में।

यूँ तो लड़का बेशऊर बेकार है,
फिर भी सौदा शादी का है लाख में।

जनता भी क्या चीज़ नेता जानते,
उसको चाहे दशहरा बैशाख में।

आधुनिक फैशन में बह जाना नहीं,
कुछ तो रख शर्मों हया निज आँख में।

दिख रहा ‘प्रभात’ उसके भाग्य को,
दोष लगता मुठ्ठी के सुराख़ में।