कण्टकों को काटने के वास्ते / हरिनारायण व्यास
रात-दिन, बारिश, नमी, गर्मी
सबेरा-साँझ
सूरज-चाँद-तारे
अजनबी-सब
हम पड़े हैं आँख मूँदे, कान खोले ।
मृत्यु-पँखों की विकट आवाज़ सुनकर
कौन बोले ?
इसलिए सब मौन हैं ।
ये हमारी आँख के परदे लदे हैं
रुण्ड-मुण्डों के भयानक चित्र से ।
चीख़ और पुकार, हाहाकार
बेघरबार जन-जन के रुदन के स्वर भरे हैं कान में ।
धूम के बादल, लपट की बिजलियाँ घिर रही हैं प्राण में ।
कौन जाने यह हुआ क्या ?
और क्या होना अभी है ?
सब तरफ़ विध्वंस की बर्छी उठी है
लक्ष्य जिसका है हमारी ज़िन्दगी की चाह ।
आज हमको है मिला क्या ज्ञान का पहला उजाला ?
या बुझे ये दीप तन के ?
और हम सब मर, नरकवासी हुए ।
ये सभी हैं चित्र उसके ही कि जिस का दृश्य था
आँका हुआ इस भाग्य-पत्थर पर हमारे ।
दूर तक तम्बू तने हैं ।
खेलते बाहर
कटे कर-नाक, टूटी टाँगों वाले
दीन बच्चे, बाँध उजली पट्टियाँ
हम पड़े हैं तम्बुओं में
गिन रहे हैं कल्पना के फूल की पँखुरी ।
ख़ून में भीगे हुए परिधान अपने
खा रहे हैं धूप उस मैदान में ।
याद आता घर
गली, चौपाल, कुत्ते, मेमने, मुर्ग़े, कबूतर
नीम-तरु पर
सूख कर लटकी हुई कड़वी तुरई की बेल ।
टूटा चौंतरा
उखड़े ईंट-पत्थर ।
बेधुली पोशाक पहने गाँव के भगवान
मन्दिर ।
मूर्ति बनकर याद की
घर लौटने की लालसा मन में जगाते ।
गिर रही चारों तरफ़ हमदर्दियों की फुलझड़ी ।
पूछता प्रत्येक जन
निर्लज्जता की वह कहानी
जो हमारे वास्ते हो गई फुड़िया पुरानी
दर्द से भरपूर ।
युद्ध की वार्ता सदा होती मनोहर
पर हमें भी चाहिए अब पेट भरकर अन्न ।
शक्ति को उत्पन्न करने के लिए औज़ार
कण्टकों को काटने के वास्ते हथियार ।
ओ दया के दूत हम को दो, फ़क़त दो-चार गेंती औ’ कुदाली ।
हम हमारी इस नई, माँ-सी धरा के वक्ष में से
खोद कच्ची धातु अपने श्रेय के सिक्के बना लें ।
इस नए आकाश जल औ’ वायु के आधार पर
फिर से सृजन के बीज डालें ।
सुख-संगीत की लहरें बहा लें ।
दो हमें विश्वास अपने बाहुबल का
हम तभी आगे बढ़ हैवानियत की राख को
सात सागर पार डालें
हम हमेशा बन्दियों के वस्त्र-सी शरण की
‘याचना सज्जा’ पहन
जीते नहीं रह पाएँगे ।