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कब से मिलना चाह रहा हूँ / हरिवंश प्रभात
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कब से मिलना चाह रहा हूँ, मैं अपने जज़्बात से।
जैसे तैसे मैं तो जब तब, हूँ घिरा हालात से।
होती नहीं है एक जैसी जीवन की वह ज़िम्मेवारी,
अब तो है लड़ने की बारी, अपने क़लम दवात से।
मैं पकड़ना चाह रहा हूँ, लक्ष्य तो भागा जा रहा है,
वह सहारा क्यों देगा जो, जलता है मेरी औक़ात से।
होना विचलित और बिखरना, हवा भी जब प्रतिकूल हो,
ऐसी आदत कभी न रखना, कहता हूँ यह बात से।
छोड़ो लालच तारीफ़ों का, कर्म करते बढ़ते चलो,
तेरी निष्ठा और आस्था बचाएगी हर घात से।
इतना ऊँचा तुम उठो कि आसमान भी नीचे लगे,
रौशनी दो दुनिया को और तुम जगो ‘प्रभात’ से।