भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस विरामचिन्ह के उस पार / मेमचौबी देवी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:54, 18 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मेमचौबी देवी |संग्रह= }} <Poem> भुलाने पर भी एक पल के ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भुलाने पर भी एक पल के लिए
रहते थे तुम अटल
घूम कर लौट आने पर भी
रहते थे छाया की भाँति मेरे पीछे
स्वप्न में भी
आए चुपचाप
क्या कह रहे हो, क्या बता रहे हो
भूल गए क्या, जा रही हूँ मैं
इस विरामचिह्न के उस पार
स्वर्ण-मृग की खोज में
अनपहचाने गंतव्य का प्यासा है मन
शायद वह गंतव्य हो सहारा या साइबेरिया

आकाश पर उड़ने वाला यह पक्षी
छतनार वृक्ष पर
बना लेगा पड़ाव
लेकिन कहाँ है सूर्य
कहाँ है धरती
मानसरोवर का एक जल-कण
प्यासा था निस्सीम सागर का
कहाँ है मेरा गंतव्य
ऊँटविहीन मरुभूमि की यात्रा
लेकिन रख दिया है मैंने
एक क़दम इस विरामचिह्न के उस पार


मणिपुरी से अनुवाद : इबोहल सिंह कांजम