भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब सपनों में घुला ज़हर है / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:55, 8 जनवरी 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र गौतम |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रात अभी यह तीन पहर है ।
बर्फ़ हुई गर्मी धूनी की
‘पौ-फटनी' है दूर
गुड़ी-मुड़ी काया रल्दू की
ठिठुरन को मजबूर
रोम-रोम में शीतलहर है ।
मुखिया खिला-खिला रहता है
क्या-क्या ख़बरें बाँच
तब रल्दू के सपनों में भी
कौंधा करती आँच
अब सपनों में घुला ज़हर है ।
औसारे में
सबद-रमैनी-आल्हा
गुम-सुम हैं
बुझे हुए चूल्हों में
पिल्ले दुबकाए दुम हैं
पाला ढाता ग़ज़ब कहर है ।