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प्रायः / वैशाली थापा

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आज फिर अजनबी हो गया
हमेशा की तरह
कभी-कभी अकस्मात् सबकुछ
हो जाता है अपने आप अपरिचित।

अभी हूँ जिस स्थिती में
हूँ उसमें पिछले कई दिनों से
लगता था जिसे जान चुकी हूँ
वही अभी-अभी एक क्षण में
मनहूस से पराएपन से भर गई है।

जिस नींद में मेरी आँखें आराम कर रही है
यकायक वहाँ ख़ुद को मेहमान पाती हूँ
मन्ज़िल तक पहुँचते ही
सारी यात्राएँ स्वप्न जान पड़ती है।

पाते ही लगता है
जिया जा सकता था इसके बिन
और छूटते ही अस्तित्व अपने मायने ख़ो बैठता है
वे सारी बातें विरोधाभासी हो जाती है
जो अभी कुछ ही देर पहले निकली थी मुँह से निःशंक ।
समय प्रायः ही लाकर खड़ा कर देता है
मुझे हर उस व्यक्ति की जगह
जिसके दुःख को मैंने दो कौड़ी का माना।

किताब का सारा ज्ञान
मानवीय भावना के तुच्छ से तुच्छ रूप के आगे
हो जाता है अपंग।

मेरे सामने खड़ा व्यक्ति
जिसको कि मैं प्रेम करती हूँ
लगता है
जन्मजन्मान्तर से मेरा इसके साथ कोई वास्ता नहीं है।