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रात की छतरी / विनोद दास

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आर्द्र रात में
तुम्हारे खर्राटे बरस रहे हैं
टीन छत पर
ओलों की बारिश की तरह

तुम्हें अपने खर्राटे सुनाई नहीं देते
जैसे मृतक देख नहीं पाता
अपनी लाश

दिन की ज़िल्लत
पसीने से तरबतर ब्लाउज की गन्ध में डूबी
तुम जितनी देर खर्राटे लेती हो
उतनी ही देर रहती हो
घर की अदृश्य हिरासत के बाहर

हाथ में ताला लेकर
मैं तुम्हारा पीछा करता रहता हूँ
तुम्हारी नींद में
बौराए ततैये की तरह

तुम्हारी पलकें
गुप्त डायरी के उन गीले पन्नों की तरह चिपकी हुई हैं
जिन्हें खोलते हुए फटने का भय लगता है

तुम्हारे खर्राटे
तुम्हारे दुख और स्वप्न का गुप्त सम्वाद है
मिर्गी मूर्छित उस औरत की तरह
जो उन्माद में पता नहीं क्या
अगड़म-बगड़म बड़बड़ा रही है

खदबदाती गर्म रात में
घुर्र- घुर्र पंखा चल रहा है
फूल गई है तुम्हारी मैक्सी पैराशूट की तरह

तुम निश्चिन्त सोती रहो
चादर खींचकर मैं तुम्हें नहीं जगाऊँगा
नींद वह छतरी है
जो तुम्हें बचाती है
दिन भर की खटन से