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जल जबरन / महेश उपाध्याय
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जल जबरन
जहाँ ठहर जाता है
बड़ा कसमसाता है।
कसक धार देती है
काटती किनारे
मार ढूँढ़ती —
बन्दी साँझ में सकारे
ओ पत्थर ! मूर्त्तिमान
गति को मत दे विराम
ठहरा जल ज्वाला है
लपटों में गाता है ।
मिट्टी का यह घिराव
क्या लेगा तापमान ?
बून्द बून्द चिनगारी
चिनगारी प्राणवान
ओ ! पर्वत के सपूत
लहरें देंगी सबूत
जल है चेतन स्वरूप
चेतना जगाता है ।