भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घर / सुनील कुमार शर्मा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:32, 18 मार्च 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुनील कुमार शर्मा |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेजान नहीं होते घर
इनको भी नज़र लगती है,
टूट जाते हैं,
बिखर जाते हैं,
लुट जाते हैं घर

क्या नहीं होता घरों के साथ
जल जाते हैं,
नहीं तो जलाये जाते हैं घर

होते हैं जब सपनों में ये,
खिलखिलाते हैं,
प्रेम की बगिया भी
उगाते हैं घर

घरों के साथ क्या-क्या होने लगा है
आयी थी ख़बर
घरों का भी दम घुटने लगा है
जब से उगने लगे हैं, घरों के ऊपर घर

घर, दीवारों के संग बतियाते हैं
कि आसां नहीं है घर को बनाना घर
ख़ाली मकानों को मत कह देना घर
ज़िन्दगी निकल ही जाती है
बनाने में घर

समझिये जनाब
घरों की भाषा है, बातें हैं
घरों पर बात करना हो तो
पूछना उनसे,
होते हैं जो बेघर॥