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मन तरसे / सुरंगमा यादव

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1
विदीर्ण किया
धूप के नश्तरों ने
धरा का जिया
नमी चूसती हवा
तेवर रही दिखा।
2
मन तरसे
ये कैसी निकटता
तुम्हें पाने को
अनसुनी पुकारें
अनचीन्ही व्यग्रता।
3
ढूँढ ही लूँगी
प्रिय तुम्हारा पता
डरता मन
पीर ना बढ़ जाए
हा! शकुंतला बन।
4
जा तो रहे हो
तुम परदेस में
कुछ ना लाना
बस पूरा मन ले
प्रिय तुम आ जाना।
5
प्रिय की पीर
देखकर अधीर
हो ना जो मन
तो ऐसे मन पर
क्यों वारें तन-मन।
6
सात स्वरों में
अधर धरे बिन
बजे बाँसुरी
जान सको तो जानो
ये है नारी जीवन।
7
मेघ नहीं मैं
विचलित कर दे
 वेग हवा का
और पात भी नहीं
ठेले दे पतझर।
8
कली उदास
बगिया भी चिंतित
घूमते साए
हर ओर उगे हैं
बबूल ही बबूल।
9
गिद्ध करते
उलूकों की पैरवी
न्याय की आस
भटकें पीड़िताएँ
कितनी ही आत्माएँ।
10
हमने लिखी
विनाश की लिपि से
सृजनगाथा!
दरकते भूधर
बाँचें पुकारकर।
11
व्याकुल मन
तुम्हारी निशानियाँ
देतीं दिलासा।
मन-नयन-साँसें
ताकते नित राहें।
-0-