अनुस्वार-विसर्ग / उदय नारायण सिंह 'नचिकेता'
राजा एलाह,
हुनक मन्त्री, सेनापति आ' पारिषद
सम्बर्द्धना ज्ञापनार्थ
उठि कए ठाढ़ भेल।
राजा बैसलाह,
सब क्यो बैसि गेल-
दूर प्रान्त में दण्डायमान
वैह ओतय अ ,आ, उ, इ, ए, ऊ,ई, ऐ, ओ,ओ, ऋ इत्यादि दण्ड प्रणाम केलक किछु कृपाक आशा मे
भिक्षा नहि, किछु दया-याञ्चाक लेल ।
नहि बुझलहुँ ?
चुपे चुप कहैत छी, "भिक्षेक नामान्तर"।
किन्तु नहि, एकरा सभक बात छोड़ू;
हम ही अनुस्वार, अहाँ विसर्ग।
हम अहाँ, अहाँ हम,
इएह ल' कए त बनल अछि समाज।
कदाचित्, भूल बजलहुँ ;
ई वास्तव में अछिये कतय ?
तें हम कहब अपनहि सभक कथा ;
जे सब समाजक शिरा- उपशिरा छथि,
जिनका सब द' कए दूषित रक्त प्रवाहित होइत अछि;
ओहि रक्तक रंग
किन्तु एतय हम अक्षम छी!
हमरा सभक बिना
'क'- 'ख' इत्यादिक नहि चलतन्हि ।
परंच हम सब त
चामरधारी वा छत्रधारीयहुक सम्मान नहि पबैत छी ।
राजाक प्रासाद-पार्श्वक कुटियो घरि
प्रासादकें व्यंग्य करबाक सामर्थ्य रखैछ ।
किन्तु ओहि सभक दसतल्ला,
हमरा सभक एकतल्ला क
निष्ठुर उपहास करैछ !
हमरा लोकनि थिकहुँ अनुस्वार- विसर्गक दल,
हमरा सभक रईसी
सोलह आना क़ायम रहबाक चाही।
साढ़े छ'आनाक माल ल' कए काज सरिपहुं चलि जाइछ ।
इतिहास में पढै़त छी-
सर्वत्र हमरा सभक जय । किन्तु एखन ?
एहन पराजय कियैक ?
ऊपर वा नीचा जेम्हरहि तकैत छी,
जेना अहोरात्र काँटा भोंकि- भोंकि कए
यह मोन पारि दैत अछि, जे हम सब थिकहुं अनुस्वार, थिकहुं विसर्ग-
संसार-समाज-स्वर्ग सँ च्युत ।
हमर ई त्रिशंकुवत् अवस्था देखि
अहाँके हँस्सी लगैछ ?
हँसू ; बाधा नहि देब,
तागते ओरा गेल अछि ।
क्षीण आशाक मकड़जाल में ओझरायल
मूल्य - वृद्धिक तऽस सँ झमान आ' सोन्हगर
अपनहि त्रासें सकपक करैत
एकहि टाँग पर दौड़़बा लेल उद्यत
सरिपहुं दिग्भ्रान्त (?) अछि हमरा सभक जीवन ।
हम सब जे अनुस्वार छी,
हम सब छी विसर्ग ॥