हम कांच के होरा बुझने छलहुँ;
तें,आब नहि भरमायब।
किन्तु, एखन त बकुल झरि गेल अछि;
ओ झरल फूल-
अपन समस्त शोभा- छलना कें हटा कए
नग्न विभीषिकाक रूप में आत्म-प्रकाश केने अछि।
तैं, एखन पुरातनक श्रृंखल सँ-
हम सब मुक्त भेलहुँ।
एखन हवा नवीन रूपें बहतैक।
स्निग्व शुभ्र पुष्प,
सलज्ज आत्म-समर्पण सँ पुनः नवीन रूपें मनकें उत्फुल क' देत।
आ' नवीन दिनक, नवीन युगक मनुष्यक अभिनन्दन करतैक नव वसुन्धरा ।
एहटा वैप्लविक जागरण
उद्वेलित करैछ आकाश-बतास,
आणविक शक्तिक विषाक्त धुँइया कें
हँटा देबा लेल जे अछि दृढ़प्रतिज्ञ।
ई सभ्यताक पुनर्नवीकरण क समय अछि
दिगन्तक आह्वान युगान्त सृष्टि करैछ।
नाह त ने डूबि जेतैक
दुःख-पारावारक पार-
आँखि सँ नहि देखना जाइछ; 'बाडनाकुलरो' सँ नहि।
किन्तु शेष त अछिये।
हमर क्षुद्र नाह मे-
विजन रातिक अन्हार में
नुका कए बिना अनुमतियें लेलहुं किछु निमज्जमान साथी।
एकर पहिने
'सदाशिव' क नाह डूबि गेल छलैक।
नहि जानि, हमर ई दोष क्षम्य हेतैक कि नहि;
कतहु-
नाह त ने डूबि जेतैक ?