जवाँ मई है, जानेमन ! / राकेश रंजन
अभी तो आग हुस्न की नई-नई है, जानेमन !
अभी तो ये जलाएगी, जवाँ मई है, जानेमन !
बरस रही है आग-सी पिघल रहा हूँ मोम-सा
वो पुर-जलाल है अगरचे निर्दयी है, जानेमन !
मिज़ाज उसका गर्म है, मगर उसी पे हूँ फ़िदा
बला है वो, सितम है वो, मगर वई है, जानेमन !
अभी तो पिंक-पिंक-सी, गई थी मेरी डार्लिंग
अब आई है जो लौट के, तो कत्थई है, जानेमन !
बदन से रूह उतारके, चमक-दमक में डूब जा
है कौन देखता यहाँ, ये मुम्बई है, जानेमन !
ये बल्ब है कि बोरसी, ये जोत है कि ज्वाल है
क़मीज़ है कि कांगड़े की मिर्ज़ई है, जानेमन !
गली से उसकी आ रई हवा शबे-फ़िराक़ में
दरे-ग़मे-जिगर को खटखटा रई है, जानेमन !
बचा है सिर्फ़ मुद्दआ-अलैह इस उजाड़ में
न कोई मुद्दआ, न कोई मुद्दई है, जानेमन !
तुम एसियों के लोग, तुम को क्या पता है, क्या तपिश
तुम्हारा मूँ सफ़ेद, आँख सुरमई है, जानेमन !
झुलस गए हैं ख़्वाब सब, ख़याल ख़ाक हो गए
बस, इक उमीद थी जिगर में, सो हई है, जानेमन !
न फ़िक्र कर, न सब्र खो, ये तजरबे की बात है
ख़राब से ख़राब रुत गुज़र गई है, जानेमन !
इसी के बाद पूरबी हवा मचल के आएगी
इसी के बाद अब्रे-तर है, वाक़ई है, जानेमन !
मई ही कौन कम थी, जो ये आ रहा है जून भी
सितम है ये, ज़ुलम है ये, तो गुंडई है, जानेमन !
ये 'रंजन' एक मुर्ग़ था, जो भुन चुका है ठीक से
नमक-मसाला डाल दो, तो मुग़लई है, जानेमन !
शब्द-अर्थ
- पुर-जलाल – प्रताप से युक्त, तेजस्विनी
- शबे-फ़िराक़ – विरह-रात्रि, जुदाई की रात
- दरे-ग़मे-जिगर – दिल के दुख का द्वार
- मुद्दआ-अलैह – जिसके ख़िलाफ़ फ़रियाद/दावा किया गया हो
- मुद्दआ – जिस विषय में फ़रियाद/दावा किया गया हो
- मुद्दई – फ़रियाद/दावा करने वाला
- अब्रे-तर – बरसने वाला बादल