भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
राही / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:17, 27 मई 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' |अनु...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
एक राही बढ़ रहा है
फूल हैं पथ पर बिछे या
शूल मुॅंह खोले खड़े हों।
मुक्त पथ आगे बढ़ें या
रोक कर भूधर अड़े हों।
शृंग पर दृढ़ चरण दर वह
सत्य ऊॅंचा चढ़ रहा है
एक राही बढ़ रहा है।
पूर्णिमा की ज्योति हो या
अमाॅं का अंजन नयन में।
दूब पर पग पड़ रहे या
चल रहा है सघन वन में।
विहॅंस शत अवरोध से वह
नित अकेला लड़ रहा है।
एक राही बढ़ रहा है।