भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उद्बोधन / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:41, 28 मई 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' |अनु...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जागरण-प्रात यह दिव्य अवदात बंधु,
प्रीति की वासंती कलिका खिल जाने दो।
दूर हों भेद-भाव कूटनीति कलह तय,
द्वेष की होलिका को शीघ्र जल जाने दो।
नूतन तन, नूतन मन, नवजीवन छाने दो,
ढल रही मोह-निशा मित्र, ढल जाने दो।
रोम-रोम पुलकित हो, अंग-अंग हुलसित है,
प्रभा-पूर्ण ज्योतिर्मय नव विहान आने दो।