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कवि से / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'
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कवि! अतीत की शिथिल वीन में
अब नूतन रव भर दो।
युग की अलसित तंद्रा टूटे
अग-जग चेतन कर दो।
सब ओर प्रगति के चरण बढ़ें
सोया यौवन जागे
नव अंगड़ाई लिए चेतना
अब खोया धन मांगे।
मत ललचो कवि! आज स्वर्ग पर
जाने कैसी छाया?
छाया की पहचान नहीं जब
कैसी उसकी माता।
अतः आज वह हमें न माता
वह तो हुआ पुराना।
इस धरती पर स्वर्ग झुके,
कवि! छेड़ो नया तराना।
चंद्र चूमने को आतुर हो
किन्तु कूल है प्यासा
जिनके उर के महल ढ़हे,
कवि! बन जा उनकी आशा।
खॅंडहर में तुम दीप जलाकर
स्नेह-सुधा बरसा दो
उजड़े बागों में नंदन की
वासंती बरसा दो।
सूखे सर में सावन लहरे
दूर क्षितिज तक छहरे
कवि! मलार का राग छेड़ दो
कण-कण नव घन घहरे।