भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब तो हर बंधन में (जुगलबन्दी) / रश्मि विभा त्रिपाठी

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:08, 28 मई 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रश्मि विभा त्रिपाठी }} {{KKCatKavita}} <poem> र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रामेश्वर काम्बोज' हिमांशु'
रश्मि विभा त्रिपाठी
1
सन्देशे खोए हैं
तुम क्या जानोगे
हम कितना रोए हैं!

सन्देसे आएँगे
करना आस यही
बिछड़े मिल जाएँगे।
2
बाहों में कस जाना
तन से गुँथकरके
मन में तुम बस जाना।

बाहों में कसकरके
दूर न तुम जाना
फिर मन में बसकरके।
3
बाहों के बंधन में
अधरों के प्याले
साँसों के चंदन में।

अब तो हर बंधन में
सब विष घोल रहे
साँसों के चंदन में।
4
यों मत मज़बूर करो
हम दिल में रहते
हमको मत दूर करो।

ये ही दस्तूर रहा
दिल में जो बसता
नज़रों से दूर रहा।
5
विधना का लेखा है
आँखें तरस गईं
तुमको ना देखा है।

विधना का ये लेखा
बदल गया जबसे
मैंने तुमको देखा।
6
रस दिल में भर जाना
अधरों की वंशी
अधरों पर धर जाना।

पूरी आशा कर दी
अधरों की वंशी
जब अधरों पे धर दी।
7
है उम्र नहीं बन्धन
खुशबू ही देगा
साँसों में जो चंदन।

अब टूट चला बंधन
कब तक विष झेले
साँसों का ये चन्दन।
-0-