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विद्रोही जड़ें / शिवांगी गोयल
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कभी देखा है विद्रोह को
अपने भीतर जड़ें जमाते?
जैसे मिट्टी से निकलकर फैलते हैं केंचुए
वैसे ही दिमाग़ से निकलकर
फैलती विद्रोह की नसें;
किसी पेड़ की जड़ सरीखी पनपतीं
चुभ रही हैं अंदर से
बेचैनी का सबब बनती जा रहीं
रोको! वरना मैं विद्रोह का पेड़ हो जाऊँगी
जिसके हाथ और पैरों की जगह होंगी
विद्रोही टहनियाँ , विद्रोही जड़ें;
आ लिपटेंगे स्वतंत्रता की केंचुल ओढ़े हजारों साँप
और एक दिन सामाजिक संस्कारों की कुल्हाड़ी से
काट दी जायेंगी मेरी विद्रोही जड़ें
और तब वह साँप अपनी केंचुल वहीं छोड़
एक नई केंचुल ओढ़ आगे निकल जायेंगे!