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विदूषक की ढपली / अवधेश कुमार
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एक विदूषक ढपली बजाता है
राहगीरों की नज़र अपनी तरफ़ घुमाता है
गिरे हुए परदे के पीछे छुपे
जाने हुए रहस्य को
हर गार नया बताता है
जीवन में कुछ परिचित घटनाएँ
मेला हो जाती है
जब वे किसी अन्तराल के बाद आती हैं
पैदाइश, शादी, चुनाव और मौत
वग़ैरह-वग़ैरह उनमें आती हैं
अपने अभाव गिनते-गिनते
हम वोट गिनने लगते हैं
और जीते जी मरने और
मरते-मरते जीने लगते हैं
हर बार व्यवस्था बदलती है
बदतर होने के लिए
और हमारी अवस्था भी
मगर हमारे हाथ
तालियों में तो बजते हैं
पर तीलियों की तरह
सुलग नहीं पाते ।