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परिपक्वता / केतन यादव
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हिंसा के नवीनतम दृश्यों की आदी हो चुकी आँखें
कुछ भी देख सकती हैं अब; अपेक्षाकृत और क्रूर
अद्यतित संस्करण में बहरे हो चुके कान
अभ्यस्त हैं हर चींख अनसुनी करने के लिए
कितना भी ताज़ा पाप हो, कितनी भी तड़पी हो लाश
आत्मा पर हर सड़ी दुर्गंध बर्दाश्त कर सकती है ये नाक आज
कोई भी झूठ निगलने पर नहीं पड़ते छाले
चीभ से ढकेल सकते हैं हम डकार भर की आह भी
कोई भी स्पर्श महसूस नहीं होता है अब
न प्यार का न घृणा का
ओह! मेरी इंद्रियाँ
कितनी परिपक्व हो चुकी हो तुम ॥