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विदा / सुरजीत पातर / योजना रावत

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हे नदी !
अब चलता हूँ मैं
अब मेरी तपिश से
तेरी लहरों की छुअन नहीं सही जाती ।

शुक्र है, तू नहीं जानती
कि अब तक
जो शान्त मन
तेरे संग बातें कर रहा था
वह मेरा मुखौटा था ।

मेरा चेहरा तो
उस मुखौटे के पीछे
बुरी तरह तप रहा था ।

इससे पहले
कि चेहरे की तपिश से
मुखौटा पिघल जाए,
मैं चलता हूँ, हे नदी !

ठहर ज़रा !
नदी ने हँसकर
और एक ठण्डी लहर मेरी ओर उछाली
उसके छींटे मेरे मुखौटे पर पड़े

बहुत पछताया मैं
काश ! मैंने मुखौटा न पहना होता
तो ये छींटे
मेरे तपते चेहरे पर पड़ते ।