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अनामिका / नीना सिन्हा

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अब जब बहुत कुछ शेष होता है
क्रमश:
मैं सोचती हूँ
अकेले की यात्रा कितनी निस्संग है
ना जिम्मेदारियाँ
ना उम्मीद
ना सुखों की पहेली
ना दुख का अंजाम
इक अनाम मुक्ति का ऐहतराम!

दिन ब दिन फिसलते मौसमों की आहट लिए
बरसात का दरवाज़े तक आ जाना
इक आत्मा का बहनापा
इक पुनः मिलने का संयोग

मेरे हाथ की उँगलियों से समय पिघलता है
मोम के अहसास, बुत, किरदार
सब रेत के सहराओं से रंग, आकार बदलते हैं
मृग मरीचिका-सा जीवन
बार बार छल करता

तुम्हारा रूप, भाव भी बदल जाता

तुम एकाकार हुई अनामिका
तुम्हारा कोई पर्याय नहीं

तुम मुक्त हो
छंद से
शब्द से
आवाज से
स्पर्श से!

तुम्हारे जैसा कोई और नहीं!