माँ का कमरा / महेश कुमार केशरी
आज बहुत दिनों के बाद
मैं, मांँ के कमरे में गया था ...
खिड़की से जाड़े
की गुनगुनी
धूप वैसे ही
तैरकर आ रही थी...
जैसे...जब मांँ बीमार थी
तब, आया करती थी...
लगा, मांँ फिर से कराहने
लगी है.. और मांँ की तकलीफ
फिर से बढ गई है...
लेकिन, अब वह कमरा खाली है
अब मेरी मांँ वहाँँ नहीं है।!
ना कमरे में, ना जाड़े की
उस गुनगुनी धूप में...
आज अलमारी को साफ़
करते हुए मिले कुछ पुराने
पीले पर्चे...
जब मांँ बीमार रहतीं थीं
वो, उस समय के डाॅक्टरों
के लिखे दवाई के पर्चे थें
कुछ पुरानी पीली यादें
स्मृतियों में तैर गईं हैं
सामने के खुले बिस्तर
पर मैंने हाथ फिराई
तो लगा ये मांँ का सिर
है...
लगा मैं सालों पीछे चला
गया हूँ और मांँ के सिर
को दबा रहा हूँँ ...
और, मांँ मेरे बालों में
हाथ, फिरा रही है...
मांँ को सांँस लेने में
तकलीफ होती थी
सामने ही पडा़ हुआ है
आॅक्सीजन का खाली पडा़
सिलेंडर...
अब सिलेंडर की ज़रूरत
नहीं है...मांँ को... ना ही... कभी...
पड़ने वाली है ...
मांँ के लिए.।
मांँ की सांँसें कब
की थम चुकीं हैं इसलिए,
सिलेंडर भी अब
खाली
खाली रहता है
उस पर जम गई है
गर्द की एक मोटी परत
ना अब मांँ के लिए
दवाईयों की ज़रूरत है
ना ही दवाईयों के पर्चे की
लेकिन, मेरे पास बची है
मांँ की वह यादें
जो जाड़े की उदास गुनगुनी
धूप में आज भी उस कमरे में
तैरती रहती है...!