वह भी शस्त्र उठाएगी / अरुणिमा अरुण कमल
पतीले में खौलते चावल को हिलाती
दो-एक गिरकर छिटक रहे चावल को बाँधती जाती
करती उन्हें फिर से साथ-साथ
गर्म कलछी संग बतियाते उसके ये हाथ
खौलते पानी-सा उसका यह मन
सब परिजनों के बीच उसका यह एकाकी जीवन
अब भी प्रतीक्षा में है अपने साथी की
जिसमें देशभक्ति की उबाल भरी थी
बस चार दिन ही तो हुए थे, गौने को
जब वह ससुराल आकर ठहरी थी!
पर समझ लिया था उसने, मन अपने मीत का
जिसे पूरा भरोसा था अपनी और देश की जीत का
और उस मन का ध्यान रखने को,
बाँध लिया था अपने मन को
किया था वादा, इस प्रीत को बनाए रखने का,
विजयी होकर आने तक प्रतीक्षारत रहने का;
घर-परिवार, अपनी नवेली दुल्हन को छोड़कर,
परिवार के आभरण के हर स्रोत को तोड़कर,
चला गया वह उस रात, कुछ और वीरजनों के साथ
संग जोश, हिम्मत और राष्ट्रभक्ति का शस्त्र लिए
रह गयी अकेली वह, व्यथा अपनी किससे कहे!
सुनती रहती है पर्दे के पीछे से पुरुषों की बातचीत
अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचार
और जलियाँ वाला बाग़ का नरसंहार
भगत सिंह की आग और गाँधीजी की साख
‘अंग्रेजों को छोड़कर जाना ही होगा इस देश को’
और विजयी होकर आएगा तब, उसका मरद
जिसके भरोसे वह इस नये घर में बैठी है
वीर सेनानी की औरत है, आंसू नहीं गिराएगी,
जरूरत पड़े तो वह भी शस्त्र उठाएगी!
अपने देश को, परतंत्रता की जंजीरों से मुक्त कराएगी!