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बादलो / शमशेर बहादुर सिंह
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ये हमारी तुम्हारी कहाँ की मुलाक़ात है, बादलो !
कि तुम
दिल के क़रीब लाके,बिल्कुल ही
दिल से मिला के ही जैसे
अपने फ़ाहा-से गाल
सेंकते जाते हो...।
आज कोई ज़ख़्म
इतना नाज़ुक नहीं
जितना यह वक़्त है
जिसमें हम-तुम
सब रिस रहे हैं
चुप-चुप।
धूप अब
तुम पर
छतों पर
और मेरे सीने पर...
डूबती जाती है
हल्की-हल्की
नश्तर-सी
वह चमक