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पानी का रंग / निमेष निखिल / सुमन पोखरेल

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रोजाना आकर हलकारा समय छेड़ता है—
पानी का रंग कैसा होता है—

कितनी बार देखा पानी में लहरों का आना-जाना,
हिमालय की छाया, पहाडों के प्रतिबिंब,
उससे भी ज्यादा देखा अपने ही चेहरे का डोलता हुआ चित्र पानी में,
नीला आकाश पानी में ही चमक उठा,
तारों की झिलमिल पानी के भीतर ही हिल रही,
बादलों के बेलबूटे ने कितना खेला छुपनछुपाई इसी पानी में,
देखा,
फिर भी पता नहीं चला—
पानी का रंग कैसा होता है—

अतीत की सुदूर स्मृति में,
जब तुम खड़ी होती थी किनारे पर,
पानी का रंग तुम्हारे जैसा लगता था,
और, मैं खड़ा होता तो मैं ही जैसा,
तुम ही कहो—
पानी का रंग तुम्हारे जैसा, या मेरे जैसा—
जब तुम हंसती थी तो पानी भी हंस लेता था एक गुलाबी हंसी,
जब तुम रोती थी तो काले बादल छा जाते थे पानी की सतह पर,
पानी तो गुलाबी भी हो जाता था पल में,
और धुंधला भी जाता था अचानक।

इस बार भी मैं खदेड़ा जा रहा हूँ प्रश्नों से,
सवालों के वार से नीले धब्बे बने हैं पूरे शरीर पर,
पर्दे के पीछे से बार-बार पूछता है समय —
पानी का रंग कैसा होता है—

आज ऐसा लग रहा है—
शायद पानी का रंग
तुम्हारे और मेरे रिश्ते के रंग जैसा होता है,

रिश्ता, जिसका कोई नाम नहीं है,
पानी जिसका कोई रंग नहीं है।